वांछित मन्त्र चुनें

इ॒मां धियं॑ स॒प्तशी॑र्ष्णीं पि॒ता न॑ ऋ॒तप्र॑जातां बृह॒तीम॑विन्दत् । तु॒रीयं॑ स्विज्जनयद्वि॒श्वज॑न्यो॒ऽयास्य॑ उ॒क्थमिन्द्रा॑य॒ शंस॑न् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imāṁ dhiyaṁ saptaśīrṣṇīm pitā na ṛtaprajātām bṛhatīm avindat | turīyaṁ svij janayad viśvajanyo yāsya uktham indrāya śaṁsan ||

पद पाठ

इ॒माम् । धिय॑म् । स॒प्तऽशी॑र्ष्णीम् । पि॒ता । नः॒ । ऋ॒तऽप्रजाताम् । बृ॒ह॒तीम् । अ॒वि॒न्द॒त् । तु॒रीय॑म् । स्वि॒त् । ज॒न॒य॒त् । वि॒श्वऽज॑न्यः । अ॒यास्यः॑ । उ॒क्थम् । इन्द्रा॑य । शंस॑न् ॥ १०.६७.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:67» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:15» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:1


बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

इसमें आदि-सृष्टि में परमर्षियों द्वारा परमात्मा वेदों को प्रकट करता है, वेदज्ञान से सभी सुखी होते हैं, राजा द्वारा वेद का प्रचार, राजपद का वही राजा अधिकारी है, जो प्रजारक्षण, उनकी आपत्तियों का निवारण करे, आदि विषय वर्णित हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (पिता) पालन करनेवाला परमात्मा (इमां सप्तशीर्ष्णीम्) इस सात छन्दों रूप शिरोंवाली (ऋतप्रजातां बृहतीं धियम्) स्वकीय ज्ञान में प्रसिद्ध, महत् विषयवाली वेदवाणी को (नः-अविन्दत्) हमें उपदेश देता है-ज्ञान प्राप्त कराता है (विश्वजन्यः) जगत् उत्पन्न होने योग्य है जिससे, ऐसा जगदुत्पादक (अयास्यः) प्रयत्न को अपेक्षित न करता हुआ, सहज स्वभाववाला परमात्मा (तुरीयं स्वित् जनयत्) धर्म-अर्थ-काम-मोक्षों में चतुर्थ अर्थात् मोक्ष को प्रसिद्ध करता है-प्रदान करता है (इन्द्राय-उक्थं शंसत्) आत्मा के लिए वेदवाणी का उपदेश करता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - जगत्पिता परमात्मा सात छन्दोंवाली वेदवाणी बहुत ज्ञान से भरी वाणी का उपदेश करता है। बिना किसी बाह्य प्रयत्न की अपेक्षा रखता हुआ सहज स्वभाव से जगत् को उत्पन्न करता है। मानवजीवन को सफल बनाने के लिए चार फलों में से अर्थात् धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष में से मोक्ष को आत्मा के लिए प्रदान करता है। उस ऐसे परमात्मा की हमें स्तुति-प्रार्थना-उपासना करनी चाहिए ॥१॥
बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

अत्र वेदस्य प्रकाशं परमात्माऽऽदिसृष्टौ परमर्षिषु करोति, वेदज्ञानेन सर्वे सुखिनो भवन्ति, राज्ञा वेदस्य प्रचारः कार्यः, स एव राजा राजपदमधितिष्ठति, यः प्रजारक्षणमापन्निवारणं करोतीत्यादयो विषया वर्ण्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः - (पिता) पालयिता परमात्मा (इमां सप्तशीर्ष्णीम्-ऋतप्रजातां बृहतीं धियं नः-अविन्दत्) एतां सप्तछन्दोरूपशिरोवतीं स्वकीयज्ञाने जातां बृहद्विषयिकां वेदवाचम् “वाग्वै धीः” [काश० ४।२।४।१३] “धीरसीति ध्यायेत हि वाचेत्थं चेत्थं च” [काठ० २४।३] अस्मान् प्रापयति-उपदिशति (विश्वजन्यः) विश्वं जन्यं यस्मात् स विश्वस्य जनयिता (अयास्यः) यासं प्रयत्नमनपेक्ष्यमाणः सहजस्वभावकः परमात्मा (तुरीयं स्वित्-जनयत्) धर्मार्थकाममोक्षेषु चतुर्थं मोक्षं प्रादुर्भावयति प्रयच्छति (इन्द्राय-उक्थं शंसत्) आत्मने वेदवाचं यः शंसति-उपदिशति “वागुक्थम्” [षड्विं १।५] ॥१॥